तुमने सुन ली है
आहट ऊँघते सूरज की।
अँधेरों को गारती प्रभातियों के बोलों में
तुम्हारे साथ -
पृथ्वी अगड़ाई ले रही है
बस्ती-ग्राम-टोलों में।
आकाशी माथे पर
उजली इबारत लिखती
तुम किरण-सी खेलती हो,
इरादे कोंपली लेकर
ओस-स्वप्नों में
तुम्हीं जो इंद्रधनु-सी फैलती हो।
झूलती थी मौज में
जैसे हिंडोलों पर कभी
अब छलाँगें तुम लगाती हो खगोलों में।
केवड़े और केतकी-सी
तुम महकती हो
दरो-दीवार को इक घर बनाती हो,
चाँद-सूरज जागते-सोते
पलक को जब
तुम उठाती हो - गिराती हो !
मुस्कान से अपनी
कि तुम मरहम लगाती हो
समय के सर्वांग में उभरे हुए दुखते फफोलों में।